Lekhika Ranchi

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प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद


ज़ोरावर सिंह एक धनाढ़य और प्रतिष्ठित आदमी होने के उपरान्त उस शहर के लठैंतों और बॉँके आदमियों का सरदार था और कई बेर बड़े-बड़ों को नीचा दिखा चुका था। असकी धमकी ऐसी न थी कि अमृतराय पर उसका कुछ असर न पड़ता। चिट्ठी को देखते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया। सोचना लगे कि ऐसी कौन-सी चाल चलूँ कि इसको अपना आदमी बना लूँ कि इतने में दूसरी चिट्ठी पहुँची। यह गुमनाम थी और सका आशा भी पहली चिट्ठी से मिलता था। इसके बाद शाम होते-होते सैंकड़ो गुमनाम चिट्टियॉँ आयीं। कोई की कहता था कि अगर फिर ब्याह का नाम लिया तो घर में आग लगा देंगे। कोई सर काटने की धमकी देता था। कोई पेट में छुरी भोंकने के लिए तैयार था। ओर कोई मूँछ के बात उखाड़ने के लिए चुटकियॉँ गर्म कर रहा था। अमृतराय यह तो जानते कि शहरवाले विरोध अवश्य करेंगे मगर उनको इस तरह की राड़ का गुमान भी न था। इन धमकियों ने ज़रा देर के लिए उन्हें भय में डाल दिया। अपने से अधिक खटका उनको पूर्णा के बारे में था कि कहीं यही सब दुष्ट उसे न कोई हानि पहुँचावें। उसी दम कपड़े पहिन, पैरगाड़ी पर सवांर होकर चटपट मजिस्ट्रेट की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे पूरा-पूरा वृत्तान्त कहा। बाबू साहब का अंग्रेंजों में बहुत मान था। इसलिए नहीं कि वह खुशामदी थे या अफसरों की पूजा किया करते थे किन्तु इसलिए कि वह अपनी मर्यादा रखना आप जानते थे। साहब ने उनका बड़ा आदर किया। उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनी। सामाजिक सुधार की आवश्कता को माना और पुलिस के सुपरिण्टेण्डेट को लिखा कि आप अमृतराय की रक्षा के वास्ते एक गारद रवाना कीजिए और ख़बर लेते रहिए कि मारपीट, खूनखराब न हो जाय। सॉँझ होते—होते तीस सिपाहियों का एक गारद बाबू साहब के मकान पर पहुँच गया, जिनमें से पॉँच बलवान आदमी पूर्णा के मकान की हिफ़ाजत करने के लिए भेज गये।

शहरवालों ने जब देखा कि बाबू साहब ऐसा प्रबन्ध कर रहे है तो और भी झल्लाये। मुंशी बदरीप्रसाद अपने सहायकों को लेकर मजिस्ट्रेट के पास पहुँचे और दुहाई मचाई कि अगर वह विवाह रोक न दिया गया तो शहर में बड़ा उपद्रव होगा और बलवा हो जाने का डर हैं। मगर साहब समझ गये कि यह लोग मिलजुल कर अमृतराय को हानि पहुँचाया चाहते हैं। मुंशी जी से कहा कि सर्कार किसी आदमी की शादी-विवाह में विघ्न डालना नियम के विरुद्ध है। जब तक कि उस काम से किसी दूसरे मनुष्य को कोई दुख न हो। यह टका-सा जवाब पाकर मुंशी जी बहुत लज्जित हुए। वहॉँ से जल-भुनकर मकान पर आये और अपने सहायकों के साथ बैठकर फैसला किया कि ज्यों ही बारात निकले, उसी दम पचास आदमी उस पर टूट पड़ें। पुलिसवालों की भी खबर लें और अमृतराय की भी हड्डी-पसली तोड़कर धर दें।
बाबू अमृतराय के लिए यह समय बहुत नाजु क था। मगर वह देश का हितैषी तन-मन-धन से इस सुधार के काम में लगा हुआ था। विवाह का दिन आज से एक सप्ताह पीछे नियत किया गया। क्योंकि ज्यादा विलम्ब करना उचित न था और यह सात दिन बाबू साहब ने ऐसी हैरानी में काटे कि जिसक वर्णन नहीं किया जासकात। प्रतिदिन वह दो कांस्टेबिलों के साथ पिस्तौलों की जोड़ी लगयो दो बेर पूर्णा के मकान पर आते। वह बेचारी मारे डर के मरी जाती थी। वह अपने को बार-बार कोसती कि मैंने क्यों उनको आशा दिलाकर यह जोखिम मोल ली। अगर इन दुष्टों ने कहीं उन्हें कोई हानि पहुँचाई तो वह मेरी ही नादानी का फल होगा। यद्यपि उसकी रक्षा के लिए कई सिपाही नियत थे मगर रात-रात भर उसकी ऑंखों में नींद न आती। पत्ता भी खड़कता तो चौंककर उठ बैठती। जब बाबू साहब सबेरे आकर उसको ढारस देते तो जाकर उसके जान में जान आती।

अमृतराय ने चिट्टियॉँ तो इधर-उधर भेज ही दी थीं। विवाह के तीन-चार दिन पहले से मेहमान आने लगे। कोई मुम्बई से आता था, कोई मदरास से, कोई पंजाब से और कोई बंगाल से । बनारस में सामाजिक सुधार के विराधियों का बड़ा ज़ोर था और सारे भारतवर्ष के रिफ़र्मरों के जी में लगी हुई थी कि चाहे जो हो, बनारस में सुधार के चमत्कार फैलाने का ऐसा अपूर्व समय हाथ से न जाने देना चाहिए, वह इतनी दूर-दूर से इसलिए आते थे कि सब काशी की भूमि में रिफार्म की पताका अवश्य गाड़ दें। वह जानते थे कि अगर इस शहर में यह विवाह हो तो फिर इस सूबें के दूसरे शहरों के रिफार्मरों के लिए रास्ता खुल जायगा। अमृताराय मेहमानों की आवभगत में लगे हुए थे। और उनके उत्साही चेले साफ-सुथरे कपड़े पहने स्टेशन पर जा-जाकर मेहमानों को आदरपूर्वक लाते और उन्हें सजे हुए कमरों में ठहराते थे। विवाह के दिन तक यहॉँ कोई डेढ़ सौ मेहमान जमा हो गये। अगर कोई मनुष्य सारे आर्यावर्त की सभ्यता, स्वतंत्रता, उदारता और देशभक्ति को एकत्रित देखना चाहता था तो इस समय बाबू अमृतराय के मकान पर देख सकता था। बनारस के पुरानी लकीर पीटने वाले लोग इन तैयारियों और ऐसे प्रतिष्ठित मेहमानों को देख-देख दॉँतों उँगली दबाते। मुंशी बदरीप्रसाद और उनके सहायकों ने कई बेर धूम-धाम से जनसे किये हरबेर यही बात तय हुई कि चाहे जो मारपीट ज़रुर की जाय। विवाह क पहले शाम को बाबू अमृतराय अपने साथियों को लेकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे और वहॉँ उनको बरातियों के आदर-सम्मान का प्रबंध करने के लिए ठहरा दिया। इसके बाद पूर्णा के पास गये। इनको देखते ही उसकी ऑंखें में ऑंसू भर आये।

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